तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।
बाग वो जलियानवाला, गोलियों की सनसनाहट।
क्रूर नरसंहार, मौतें, खून, चीखें, छटपटाहट।।
मौत थी आज़ाद ने चूमी, भगत फाँसी चढ़े थे।
लोग गाँधी की डगर पर, एकजुट होकर बढ़े थे।।
खून का था पर्व जिसके मध्य भारत बँट गया था।
एक टुकड़ा देश, पाकिस्तान बन कर कट गया था।।
गोलियाँ खा वक्ष पर, चुप हो गये निर्भीक गाँधी।
विश्व रोया फूटकर, दुख की उठी घनघोर आँधी।।
मित्र बनकर चीन ने, था पीठ पर खंजर चलाया।
युद्ध में दो बार पाकिस्तान को हमने हराया।।
‘इंदिरा’ की क्रूर हत्या ने कंपाया देश का दिल।
और फिर ‘राजीव’ वध से, पूर्ण मानस ही गया हिल।।
स्वप्न खालिस्तान के, बिखरे यहाँ विद्रोहियों के।
शान से फहरा तिरंगा वक्ष पर फिर वादियों के।।
राष्ट्र के गौरव अटल ने मूँद लीं आँखे सदा को।
यूँ सुरक्षित हो गया इतिहास जीवित सर्वदा को।।
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
कुछ सनसनाते लेख, जो बाँचे समय ने।